Supreme Court ने हाल ही में चुनावों के दौरान राजनीतिक पार्टियों द्वारा मुफ्त की योजनाओं की घोषणाओं पर नाराजगी जाहिर की। बुधवार को एक याचिका की सुनवाई के दौरान, जिसमें शहरी क्षेत्रों में बेघर लोगों के लिए आश्रय स्थल की मांग की गई थी, न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने इस पर गहरी चिंता व्यक्त की। कोर्ट ने सवाल उठाया कि क्या इन “फ्रीबी” वादों से एक ऐसा वर्ग तैयार हो रहा है, जो काम करने की इच्छा को खो रहा है और पूरी तरह से सरकारी सहायता पर निर्भर हो रहा है।
वह मामला जिसने चर्चा को जन्म दिया
यह बहस उस समय शुरू हुई जब एक याचिका में शहरी इलाकों में बेघर लोगों के लिए आश्रय स्थल मुहैया कराने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि सरकार ने पिछले कुछ वर्षों से शहरी आश्रय योजनाओं को फंड देना बंद कर दिया है, जिसके कारण हाल की सर्दियों में 750 से अधिक बेघर लोगों की मौत हो गई। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि वह गरीबों को नजरअंदाज कर केवल अमीरों का ख्याल रख रही है, जिससे कोर्ट नाराज हो गया।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अदालत में राजनीतिक बयानबाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी और पीठ ने चिंता जताई कि मुफ्त की योजनाएं लोगों को काम करने से हतोत्साहित कर रही हैं।
Supreme Court की सख्त टिप्पणियां
न्यायमूर्ति गवई ने इस बात पर चिंता जताई कि इन योजनाओं का लोगों के व्यवहार पर नकारात्मक असर हो रहा है। उन्होंने कहा, “यह कहते हुए दुख होता है, लेकिन क्या हम एक परजीवी वर्ग तैयार नहीं कर रहे हैं?” न्यायमूर्ति गवई ने यह भी कहा कि मुफ्त में राशन और पैसे मिलने से लोग काम करने की इच्छा खो रहे हैं। अगर ऐसा चलता रहा, तो इसका दीर्घकालिक परिणाम देश की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पर भारी पड़ सकता है।
यह टिप्पणी एक गंभीर संकेत है कि न्यायपालिका भी अब इन योजनाओं के दीर्घकालिक प्रभावों पर विचार कर रही है। मुफ्त योजनाओं की लोकप्रियता के बावजूद, कोर्ट ने सवाल उठाया कि क्या यह राष्ट्र की प्रगति में बाधा डाल सकती हैं।
Supreme Court की नाराजगी पर सरकार का पक्ष
केंद्र सरकार की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमाणी ने अदालत को जानकारी दी कि सरकार शहरी क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन की योजना को अंतिम रूप दे रही है, जिसमें बेघर लोगों को आश्रय प्रदान करने का भी प्रावधान होगा। इस पर कोर्ट ने सरकार से इस योजना के कार्यान्वयन की समयसीमा स्पष्ट करने को कहा और सुनवाई को छह सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया।
चुनावी राजनीति और मुफ्त योजनाओं का प्रभाव
भारत में मुफ्त योजनाएं राजनीतिक दलों के लिए चुनाव जीतने का एक शक्तिशाली हथियार बन गई हैं। हालांकि, इस प्रथा की नैतिकता और आर्थिकता पर सवाल उठते रहे हैं। आलोचकों का मानना है कि ये योजनाएं अल्पकालिक राहत तो देती हैं, लेकिन दीर्घकालिक रूप से एक निर्भरता पैदा करती हैं, जो देश के आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुफ्त की योजनाओं को प्रोत्साहित करने के बजाय, ऐसे उपाय किए जाने चाहिए, जो लोगों को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करें।
मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर कानूनी बहस
एक अन्य प्रमुख मुद्दे में, सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित कानून को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की तारीख 19 फरवरी निर्धारित की है। यह याचिका गैर-सरकारी संगठन एडीआर द्वारा दायर की गई है, जिसमें इस कानून की समीक्षा की मांग की गई है। वकील प्रशांत भूषण ने कोर्ट से अपील की कि इस याचिका पर जल्द सुनवाई होनी चाहिए, क्योंकि जल्द ही नए मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति होने वाली है।
आगे की राह
जैसे-जैसे देश में चुनाव का माहौल बन रहा है, सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणियां राजनीतिक वादों के दीर्घकालिक प्रभावों पर सोचने का मौका देती हैं। मुफ्त की योजनाएं, हालांकि तुरंत लाभ पहुंचा सकती हैं, लेकिन क्या वे देश के विकास और सामाजिक ढांचे के लिए सही हैं? यह एक गंभीर सवाल है, जिसका जवाब आने वाले समय में ढूंढा जाएगा।
सरकार के लिए यह जरूरी होगा कि वह गरीबों के लिए योजनाएं बनाते समय ध्यान रखे कि इनसे आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिले। आगामी हफ्तों में, यह बहस और गहरी होगी कि भारत किस तरह से एक संतुलित और आत्मनिर्भर समाज का निर्माण कर सकता है, जहां मुफ्त योजनाओं के बजाय काम और विकास को महत्व दिया जाए।
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