विनायक दामोदर सावरकर जयंती: एक क्रांतिकारी विचारक को नमन

विनायक दामोदर सावरकर जयंती

हर साल 28 मई को भारतवासी वीर सावरकर की जयंती मनाते हैं, जो न केवल स्वतंत्रता संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे, बल्कि एक लेखक, इतिहासकार, समाज सुधारक और राजनीतिक विचारक भी थे।

विनायक दामोदर सावरकर का जीवन भारतीय इतिहास में एक प्रेरणादायक गाथा है, जिसमें त्याग, बलिदान और राष्ट्र के प्रति अटूट प्रेम की झलक मिलती है।

 

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागुर गाँव में हुआ था। उनका पालन-पोषण एक साधारण चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता दामोदर पंत और माता राधाबाई एक धार्मिक एवं संस्कारी वातावरण में रहते थे।

सावरकर के बचपन से ही नेतृत्व करने की प्रवृत्ति और देशभक्ति के बीज दिखने लगे थे।

They founded ‘मित्र मेला’ नामक organization during their adolescence, which eventually became involved in revolutionary activities under the name of ‘अभिनव भारत’.

Their education began in नासिक and went all the way up to पुणे का फर्ग्यूसन कॉलेज. It was here that their revolutionary consciousness became stronger.

 

लंदन और ‘1857 का स्वतंत्रता संग्राम’

1906 में सावरकर उच्च शिक्षा के लिए लंदन चले जहाँ उन्होंने लॉ (कानून) पढ़ाया। वहीं रहते हुए उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाने का प्रयास किया। लंदन में उन्होंने ‘इंडिया हाउस’ के माध्यम से कई क्रांतिकारियों को एकजुट किया।

वहीं पर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “The First War of Indian Independence 1857” लिखी, जिसमें उन्होंने 1857 की क्रांति को ‘गदर’ या ‘विद्रोह’ कहने के ब्रिटिश दृष्टिकोण को चुनौती देते हुए इसे भारत का पहला संगठित स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया।

 

गिरफ्तारी और काला पानी की सज़ा

सावरकर के संबंध 1909 की ब्रिटिश अधिकारी कर्ज़न वायली हत्या का एक कारण था, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और भारत से वापस ले गए गए। उन्होंने दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई – कुल मिलाकर 50 वर्ष का समय – और उन्हें अंडमान के कुख्यात सेलुलर जेल (काला पानी) भेज दिया गया।

सेलुलर जेल में सावरकर ने बरदाश्त नहीं होने वाली यातनाएँ सहीं। कोल्हू में बैल की तरह दबाया जाना, जंजीरों में जकड़े रहना, खाने में कीड़े पड़ना – ये सब उनके लिए प्रायः काम होता था। इसके बावजूद उन्होंने न साहस हारा और न अपनी विचारधारा से समझौता किया। जेल में ही उन्होंने बहुत सी कविताएँ और लेख लिखे, जो बाद में प्रकाशित हुए।

 

रिहाई और हिंदुत्व की विचारधारा

13 वर्षों की कठोर कैद के बाद उन्हें 1924 में कुछ शर्तों पर रिहा किया गया। इसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया और हिंदू महासभा से जुड़े। यहीं से सावरकर का एक नया रूप सामने आया – एक विचारक और लेखक के रूप में।

They defined हिंदुत्व in their famous book “हिंदुत्व: हिंदू कौन?”

सावरकर की दृष्टि में, जो भारत को पितृभूमि (पैत्रिक भूमि) और पुण्यभूमि (धार्मिक भूमि) मानते हैं, वे ही हिंदू हैं। उनके लिए हिंदुत्व एक सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक था, और न केवल धार्मिक।

 

समाज सुधारक के रूप में योगदान

सावरकर ना केवल राजनैतिक क्रांतिकारी थे,instead सामाजिक सुधारक भी थे। उन्होंने अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन किया और मंदिरों में दलितों को प्रवेश दिलाने का समर्थन किया। उन्होंने जातिवाद, अंधविश्वास और पुरातनपंथी परंपराओं का विरोध किया।

उनका विचार था कि यदि भारत को सशक्त राष्ट्र बनाना है, तो उसे सामाजिक दृष्टि से भी एकजुट और प्रगतिशील होना होगा। वे विज्ञान, शिक्षा और सैन्य शक्ति को राष्ट्र की मजबूती का मूल स्तंभ मानते थे।

स्वतंत्रता आंदोलन में विवाद और गांधीजी से मतभेद

सावरकर और गांधीजी के पक्षपात में अनेक बार भिन्नता देखी गई है। जबकि गांधीजी अहिंसा और सत्याग्रह के सिलसिले में चलते थे, वहीं सावरकर सशस्त्र क्रांति और राष्ट्रवाद के समर्थक थे।

सावरकर को अनेक बार यह तर्क देकर आलोचना का शिकार भी बनना पड़ा है कि वे “उग्र राष्ट्रवादी” हैं, लेकिन उनकी देशभक्ति पर कभी प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता।

गांधी की 1948 में हत्या के बाद सावरकर को हत्या की साजिस में अभियुक्त घोषित किया गया, लेकिन निर्भयानुसार सही साक्ष्य न मिलने पर कोर्ट ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया।

राजनीतिक योगदान और बाद का जीवन

स्वतंत्रता के बाद सावरकर ने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली, लेकिन वे लेखन और सामाजिक गतिविधियों में लगे रहे।

उन्होंने भारत को एक मजबूत, आत्मनिर्भर और सैन्य रूप से सशक्त राष्ट्र बनाने का सपना देखा।

उनकी लिखी प्रमुख कृतियाँ हैं:

1-1857 का स्वतंत्रता संग्राम

2-हिंदुत्व

3-माझी जन्मठेप (मेरी जीवनकैद)

4-सिक्स ग्लोरियस एपॉक्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री

 

निधन और विचारों की विरासत

26 फरवरी 1966 को सावरकर ने अपने विश्वासोपार्थ के तहत उपवास करते हुए महाप्रयाण किया।

उनके शब्दों में उन्होंने लिखा कि जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर शरीर छोड़ना ही सर्वश्रेष्ठ है। इस तरह उन्होंने वैचारिक दृष्टिकोण पर ही मृत्यु को भी अपनाया।

आज का सावरकर भारतीय राजनीति और इतिहास में एक प्रेरक लेकिन विवादास्पद व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है।

उनकी राष्ट्रभक्ति, त्याग और विचारशीलता आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा हैं। भले ही उनके विचारों के साथ हर किसी की राय अलग-अलग हो, लेकिन उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

सावरकर जयंती का आज के युग में क्या महत्व

वर्तमान भारत में जब राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक अस्मिता जैसे मुद्दे प्रमुखता से उठाए जा रहे हैं, सावरकर की विचारधारा फिर से चर्चा में है।

भारत की युवा पीढ़ी को उनके विचारों से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है – विशेष रूप से राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, अनुशासन, वैज्ञानिक सोच और सामाजिक समानता के संदर्भ में।

उनकी जयंती केवल उन्हें श्रद्धांजलि देने का मौका है, लेकिन यह भी समय है कि सोचें कि हम उनके सपनों के भारत कितना करीब आ गए हैं। क्या हमने वह भारत बना पाया है जिसकी कल्पना उन्होंने की थी – एक मजबूत, शिक्षित, संगठित और सांस्कृतिक रूप से जागरूक भारत?

निष्कर्ष

वीर सावरकर एक ऐसे स्रहप की शाखा हैं जो शब्दों में दबाई जा सकती हैं। वहाँ क्रांति थे, चेतना थे, विचार थे, और सबसे अच्छा यह था कि एक कर्मशील राष्ट्रभक्त हैं।

उनकी जयंती पर हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अपना धर्म याद करना होगा और भारत को एक सशक्त, समतामूलक और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने के लिए अपना योगदान देना होगा।

 

📌 लेखक: KPR News डेस्क
📅 प्रकाशित: 28 May 2025

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