राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में एक बयान दिया, जिसे लेकर साधु-संतों में नाराजगी और असहमति का माहौल बन गया है। मोहन भागवत ने इस बयान में समाज में साधु-संतों की भूमिका और उनके कार्यों पर अपनी राय दी, जिससे धार्मिक समुदाय के कुछ हिस्सों में असंतोष और आलोचना का सामना करना पड़ा। यह घटना न केवल RSS के आंतरिक दृष्टिकोण को दर्शाती है, बल्कि समाज में धर्म और समाज के बीच संतुलन बनाए रखने की जटिलताओं को भी उजागर करती है। आइए, इस विवाद के कारणों और उसके प्रभाव पर विस्तार से चर्चा करें।
मोहन भागवत का बयान
RSS प्रमुख मोहन भागवत का बयान साधु-संतों के कार्यक्षेत्र को लेकर था। उन्होंने कहा कि साधु-संतों को सिर्फ पूजा और ध्यान तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें समाज के अन्य पहलुओं में भी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। उनके अनुसार, संतों को केवल धर्म प्रचार तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक कल्याण के कार्यों में भी योगदान देना चाहिए। उनका यह बयान विशेष रूप से उन साधु-संतों के लिए था जो धार्मिक कर्तव्यों को ही प्राथमिकता देते हैं और अन्य सामाजिक कार्यों से दूर रहते हैं।
भागवत के अनुसार, साधु-संतों की भूमिका समाज में एक मार्गदर्शक की होती है, और उन्हें समाज को आगे बढ़ाने के लिए अपनी जिम्मेदारियों को निभाना चाहिए। उनका मानना था कि अगर संत केवल धार्मिक कर्मकांडों और ध्यान साधना तक सीमित रहेंगे, तो समाज का वास्तविक विकास संभव नहीं हो पाएगा। भागवत का यह भी कहना था कि संतों को अपने ज्ञान और प्रभाव का उपयोग समाज की भलाई के लिए करना चाहिए।
साधु-संतों की नाराजगी
RSS प्रमुख का यह बयान साधु-संतों के लिए चिंता का विषय बन गया। कई संतों ने इस बयान का विरोध करते हुए कहा कि उनका मुख्य कार्य धर्म प्रचार और आध्यात्मिक उन्नति है, न कि सामाजिक सुधार या राजनीति में हस्तक्षेप। साधु-संतों का यह मानना है कि वे अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शन से समाज में शांति और संतुलन बनाए रखते हैं, लेकिन उनका कार्य केवल धर्म तक सीमित रहना चाहिए। उनके अनुसार, समाज का सुधार और विकास सरकार और अन्य सामाजिक संगठनों का काम है, न कि धार्मिक नेताओं का।
संतों का यह भी कहना था कि मोहन भागवत का बयान उनके धर्म के मूल सिद्धांतों से भटकाव की ओर इशारा करता है। वे मानते हैं कि साधु-संतों का कार्य केवल ध्यान, साधना, और उपदेश देना है, न कि समाज के विभिन्न मुद्दों में हस्तक्षेप करना। उनका मानना है कि यदि संत समाज के मुद्दों में दखल देंगे, तो यह उनके धार्मिक कर्तव्यों में विकृति ला सकता है।
इसके अतिरिक्त, कुछ संतों ने यह आरोप लगाया कि मोहन भागवत का यह बयान उनके व्यक्तिगत विश्वासों और धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। उनके अनुसार, संतों को स्वतंत्र रूप से अपने धार्मिक कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, और किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वे उन्हें किसी अन्य कार्य में शामिल होने के लिए मजबूर करें।
समाज में साधु-संतों की भूमिका
भारत में साधु-संतों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। साधु-संतों ने न केवल धार्मिक मार्गदर्शन दिया है, बल्कि वे समाज में शांति, प्रेम, और भाईचारे का संदेश भी फैलाते हैं। भारतीय समाज में संतों का सम्मान और उनके प्रति श्रद्धा गहरी जड़ी है। इनकी भूमिका को केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी देखा जाता है।
हालाँकि, संतों का कार्य हमेशा धर्म तक ही सीमित नहीं था। भारतीय इतिहास में संतों ने समाज के अन्य पहलुओं में भी योगदान दिया है। जैसे संत रामानुजाचार्य, संत कबीर, संत तुलसीदास, और संत गुरु नानक जैसे महान व्यक्तित्वों ने न केवल धार्मिक सुधार किए, बल्कि समाज में शोषण, भेदभाव, और असमानता के खिलाफ भी आवाज उठाई। इन संतों ने अपने अनुयायियों को सामाजिक और धार्मिक एकता का पाठ पढ़ाया, और समाज में जागरूकता पैदा की।
हालांकि, आजकल के कुछ साधु-संत अपने कार्यों को सिर्फ ध्यान और पूजा तक सीमित रखते हैं। वे समाज के अन्य मुद्दों से खुद को दूर रखते हुए केवल आध्यात्मिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह दृष्टिकोण कुछ हद तक उनके व्यक्तिगत विश्वासों पर आधारित है, लेकिन यह भी समाज में संतों के प्रति बढ़ती निराशा और असहमति का कारण बन सकता है।
मोहन भागवत के बयान के प्रभाव
मोहन भागवत का बयान समाज में एक नई बहस को जन्म दे सकता है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या साधु-संतों को अपने धार्मिक कार्यों के अलावा समाज के अन्य पहलुओं में भी भागीदार बनना चाहिए? क्या उनका कार्य केवल ध्यान और साधना तक सीमित रहना चाहिए, या उन्हें समाज सुधारक की भूमिका में भी देखा जाना चाहिए?
यह बयान RSS के भीतर और धार्मिक समुदाय में एक नई दिशा को जन्म दे सकता है। कई लोग इसे समाज में बदलाव की दिशा में एक सकारात्मक कदम मान सकते हैं, जबकि कुछ इसे धार्मिक हस्तक्षेप के रूप में देख सकते हैं। यह महत्वपूर्ण होगा कि संतों और समाज के अन्य वर्गों के बीच इस पर व्यापक चर्चा हो, ताकि संतों की भूमिका और उनके कार्यों पर एक स्पष्ट और सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण विकसित किया जा सके।
निष्कर्ष
मोहन भागवत का बयान साधु-संतों के बीच असहमति का कारण बन चुका है। हालांकि उन्होंने समाज में संतों की भूमिका के महत्व को स्वीकार किया, लेकिन उनका यह कहना कि संतों को केवल धर्म प्रचार तक सीमित नहीं रहना चाहिए, एक नई बहस को जन्म देता है। यह विवाद इस बात पर सवाल उठाता है कि संतों का कार्य केवल आध्यात्मिक उन्नति तक सीमित होना चाहिए या उन्हें समाज सुधारक की भूमिका में भी देखा जाना चाहिए।
संतों की भूमिका पर यह बहस न केवल धार्मिक समुदाय के भीतर बल्कि समाज के व्यापक संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है। हमें यह समझने की जरूरत है कि संतों की धार्मिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ उनकी सामाजिक भूमिका पर भी विचार किया जाए, ताकि समाज में संतुलन और समरसता बनी रहे।