17 April – Balidan Diwas: भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनेक वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी, जिनमें से एक थे अमर बलिदानी तात्या टोपे। 17 अप्रैल को उनके बलिदान दिवस के रूप में याद किया जाता है। तात्या टोपे न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार और अद्भुत नेतृत्व क्षमता से युक्त सेनानायक भी थे।
तात्या टोपे की पृष्ठभूमि
छत्रपति शिवाजी महाराज की विरासत को उनके उत्तराधिकारी पेशवाओं ने ससम्मान संभाला। जब अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय का प्रभुत्व समाप्त किया, तो उन्हें आठ लाख रुपये की वार्षिक पेंशन पर कानपुर के निकट बिठूर में नजरबंद कर दिया गया। पेशवा के दरबारी धर्माध्यक्ष रघुनाथ पाण्डुरंग भी उनके साथ बिठूर आ गए। रघुनाथ जी के आठ पुत्रों में से एक थे तात्या टोपे।
1857 की क्रांति और तात्या का योगदान
जब 1857 में स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला भड़की, तो तात्या टोपे ने नाना साहब के साथ इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। उन्होंने बिठूर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर में देशभक्त सैनिकों की अनेक टुकड़ियाँ संगठित कीं।
कानपुर में तैनात अंग्रेज अधिकारी विडनहम को पराजित कर तात्या ने कानपुर पर कब्जा कर लिया। यह देखकर अंग्रेजों ने नागपुर, महू और लखनऊ की छावनियों से अतिरिक्त सेना बुला ली, जिससे तात्या को कालपी और कानपुर से पीछे हटना पड़ा।
रानी लक्ष्मीबाई के साथ संघर्ष
इसी दौरान जब रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में युद्ध का बिगुल बजाया, तो तात्या ने उनके साथ मिलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। उन्होंने दो वर्षों तक लगातार अंग्रेजों से संघर्ष किया। चम्बल से नर्मदा और अलवर से झालावाड़ तक उनका पराक्रम फैला रहा।
युद्ध के दौरान उनके कई विश्वस्त साथी बलिदान हो गए, लेकिन तात्या ने साहस नहीं छोड़ा।
रणनीति और अंतिम संघर्ष
तात्या केवल वीर सेनानी ही नहीं, एक चतुर योजनाकार भी थे। उन्होंने झालरा पाटन की सेना को अपने पक्ष में कर, वहां से 15 लाख रुपये और 35 तोपें अपने कब्जे में लीं।
इससे घबराकर अंग्रेजों ने उनके विरुद्ध एक साथ छह सेनापतियों को भेजा, लेकिन तात्या उनकी घेराबंदी को चकमा देकर नागपुर पहुँच गए। हालांकि, अब उनकी सेना बहुत छोटी रह गई थी।
खरगौन में वापसी के दौरान अंग्रेजों से फिर मुठभेड़ हुई, और 7 अप्रैल 1859 को किसी मुखबिर की सूचना पर पाटन के जंगलों से उन्हें पकड़ लिया गया।
न्याय या नाटक?
तात्या को शिवपुरी (म.प्र.) के न्यायालय में प्रस्तुत किया गया, जहाँ पहले से ही तयशुदा नाटक के तहत उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई।
जब सरकारी वकील ने उन्हें गद्दार कहा, तो तात्या ने उच्च स्वर में कहा:
“मैं कभी अंग्रेजों की प्रजा या नौकर नहीं रहा, तो मैं गद्दार कैसे हुआ? मैं पेशवाओं का सेवक रहा हूँ। जब उन्होंने युद्ध छेड़ा, तो मैंने एक पक्के सेवक की तरह उनका साथ दिया।”
अन्ततः 17 अप्रैल 1859 को उन्हें फाँसी दे दी गई।
तात्या टोपे की मृत्यु पर संशय
कई इतिहासकार मानते हैं कि जिन्हें फाँसी दी गई, वे तात्या टोपे नहीं थे, बल्कि नारायणराव भागवत थे, जिन्होंने तात्या को बचाने के लिए अपने प्राण दे दिए।
श्रीनिवास बालासाहब हर्डीकर की पुस्तक ‘तात्या टोपे’ में उल्लेख है कि तात्या 1861 में काशी में अपनी बहन दुर्गाबाई के विवाह में आए थे, और 1862 में अपने पिता के अंतिम संस्कार में भी उपस्थित थे।
पराग टोपे, जो तात्या के वंशज हैं, ने अपनी पुस्तक ‘Operation Red Lotus’ में लिखा है कि तात्या की मृत्यु 1 जनवरी 1859 को चिप्पा बरोड के युद्ध में हुई थी।
तात्या टोपे – एक रहस्य, एक प्रेरणा
ब्रिटिश अधिकारियों के पत्रों में यह भी उल्लेख मिलता है कि फाँसी के बाद भी तात्या को रामसिंह, जीलसिंह और रावसिंह जैसे नामों से घूमते हुए देखा गया।
यह स्पष्ट है कि तात्या टोपे की मृत्यु और उनका अंत एक रहस्य से घिरा हुआ है, और इस विषय पर आज भी गंभीर शोध की आवश्यकता है।
उपसंहार
तात्या टोपे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन अमर बलिदानियों में से हैं, जिनकी वीरता, रणनीति और देशभक्ति पीढ़ियों तक प्रेरणा देती रहेगी। उनका बलिदान, चाहे जैसा भी रहा हो, भारत माता के लिए था – यही उनकी सबसे बड़ी पहचान है।
जय हिंद!
📌 लेखक: KPR News डेस्क
📅 प्रकाशित: 17 अप्रैल 2025
🌐 www.kprnewslive.com
KPR News Live
📩 info@kprnewslive.com