26 मार्च: इतिहास की स्मृति में चिपको आंदोलन और गौरादेवी की अमर काहानी

Chipko Andolan

Chipko Andolan: आज की दुनिया वैश्विक गर्मी, पर्यावरण असंतुलन और प्रकृति के निरंतर होते विनाश से चिंतित है। जंगलों की कटाई, कंक्रीट के बढ़ते जंगल, वाहनों की बढ़ती संख्या, ए.सी. और फ्रिज का अत्यधिक उपयोग, सिकुड़ते ग्लेशियर और उपभोक्तावादी जीवनशैली—ये सभी जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण हैं।

पहला पर्यावरणीय आंदोलन: विश्नोई समाज का बलिदान

हरे-भरे पेड़ों की रक्षा के लिए सबसे पहला ज्ञात आंदोलन 5 सितंबर 1730 को राजस्थान के अलवर में हुआ था, जब इमरती देवी के नेतृत्व में 363 लोगों ने पेड़ों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। यह बलिदान पर्यावरण संरक्षण की दिशा में पहला बड़ा कदम था।

Chipko Andolan: गौरादेवी का नेतृत्व

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26 मार्च 1974 को उत्तराखंड के चमोली जिले में इसी प्रकार का एक और ऐतिहासिक आंदोलन हुआ, जिसे ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जाना गया। इस आंदोलन की सूत्रधार थीं वीरमाता गौरादेवी। उनके नेतृत्व में ग्राम रैणी की महिलाओं ने जंगलों की कटाई के विरोध में पेड़ों से लिपटकर विरोध दर्ज कराया और ठेकेदारों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।

गौरादेवी: एक साधारण महिला, असाधारण संकल्प

गौरादेवी का जन्म 1925 में उत्तराखंड के लाता गांव (जोशीमठ) में हुआ था। वे औपचारिक शिक्षा से वंचित थीं और मात्र 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह ग्राम रैणी के मेहरबान सिंह से हुआ। 19 वर्ष की उम्र में वे माँ बनीं, लेकिन 22 की उम्र में विधवा हो गईं। उन्होंने इसे नियति का विधान मानते हुए खुद को समाज और प्रकृति सेवा में समर्पित कर दिया।

महिलाओं का कठिन जीवन और जंगलों का महत्व

पहाड़ की महिलाओं के लिए जीवन आसान नहीं था। उन्हें घर का काम, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल, मवेशियों की सेवा, पानी भरना और जंगलों से घास तथा लकड़ी लाना जैसे कार्य करने पड़ते थे। जंगल उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतों का आधार थे। लेकिन 1973 में जब सरकार ने वनों की कटाई से राजस्व बढ़ाने की नीति अपनाई, तब यह संकट महिलाओं के लिए और भी गहरा हो गया। जंगलों के घटने से जलस्तर गिरने लगा, भूस्खलन बढ़ा, वर्षा कम होने लगी, और हिंसक पशु गांवों की ओर बढ़ने लगे।

Chipko Andolan: जब महिलाओं ने जंगल बचाया

26 मार्च 1974 को जब ठेकेदार और मजदूर देवदार के पेड़ों की कटाई के लिए पहुंचे, तब गांव के पुरुष चमोली गए हुए थे। गांव की महिलाओं के कंधों पर ही जंगल बचाने की ज़िम्मेदारी थी। गौरादेवी ने तत्काल अन्य महिलाओं को बुलाया और सभी ने पेड़ों से लिपटकर ‘चिपको’ आंदोलन की शुरुआत की। ठेकेदार ने पहले समझाने और फिर बंदूक दिखाकर डराने की कोशिश की, लेकिन गौरादेवी अडिग रहीं। उन्होंने साफ कह दिया—

“पहला प्रहार मेरे ऊपर होगा, पेड़ों पर नहीं।”

यह सुनकर ठेकेदार और उसके आदमी डरकर लौट गए। यह घटना पूरे उत्तराखंड में फैल गई और जल्द ही इसमें सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरणविद भी जुड़ गए। धीरे-धीरे यह आंदोलन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक मिसाल बन गया।

Chipko Andolan और गौरादेवी की विरासत

4 जुलाई 1991 को गौरादेवी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी लगाई हुई पर्यावरण रक्षा की चिंगारी आज भी जल रही है। हालांकि, जंगलों की कटाई अभी भी जारी है और बड़े-बड़े बांधों और विद्युत परियोजनाओं से पहाड़ों और नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। फिर भी, रैणी गांव के जंगल आज भी हरे-भरे हैं, मानो गौरादेवी आज भी उनकी रक्षा कर रही हों।

निष्कर्ष: हमें भी बनना होगा गौरादेवी

चिपको आंदोलन केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण का एक प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि जब भी प्रकृति पर संकट आए, हमें भी पेड़ों से लिपटकर उसे बचाने के लिए खड़ा होना होगा। गौरादेवी और उनकी साथी महिलाओं का साहस हमें प्रेरित करता है कि हम भी अपने जंगल, नदियों और पर्यावरण की रक्षा के लिए आगे आएं।

क्या आप भी अपने आसपास के पर्यावरण की रक्षा के लिए कुछ कर रहे हैं? अगर हां, तो हम आपके प्रयासों के बारे में सुनना चाहेंगे!

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